देहरादून: पहाड़ों में लोगों के दिन की शुरूआत चाय से ही होती है। गांव के पुराने लोग तो आज भी एक बड़े ग्लास भरकर जब तक चाय ना पीलें उन्हें चैन नहीं मिलता। पूरे दिन चाय के कई गिलास गटक जाना एक आम बात है। पर उत्तराखंड में एक समय ऐसा भी था जब चाय को शराब से भी बुरा समझा जाता। चाय पीने वालों को जेल हो जाती। Tea History Utarakhand
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चाय को शराब समझते थे पहाड़ी
उत्तराखंड में सन 1842 से पहले चाय का कोई नामोनिशान नहीं था। फिर अंग्रेजों ने कुमाऊं के कौसानी में चाय की खेती शुरू की। शुरुआत में सिर्फ अंग्रेज अफसरों और उनके खास लोगों तक सीमित थी चाय की चुस्की। टिहरी के राजा जैसे गिने-चुने लोग इसे पीते थे।
आम जनता तक चाय पहुंची प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद, जब उत्तराखंडी सैनिक अंग्रेजी सेना के संपर्क में आए। पर समाज में चाय की छवि शराब जैसी ही थी – “पाप का घूंट”। प्रो. डीडी शर्मा ने अपनी किताब ‘उत्तराखंड का लोकजीवन एवं लोकसंस्कृति’ में लिखा है कि लोग चाय पीने वालों को शराबी समझते थे, और सामाजिक बहिष्कार तक कर देते थे। Tea History Utarakhand
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चाय को दाल समझ बैठे थे लोग!
एक रोचक किस्सा बहुत प्रसिद्ध है – एक गांव के प्रधान ने पहली बार चाय पत्ती मंगाई और पूरे गांव को चाय पिलाने बुलाया। जब चाय पिलाई गई, तो कुछ लोग गुस्से में बोले – “हमारे हिस्से के दाने कहां हैं? हमें तो सिर्फ पानी ही मिला!” दरअसल, गांव वालों ने चाय को दाल समझ लिया था, जिसमें कुछ दाने होंगे, कुछ सूप!
लिप्टन ने बदली तस्वीर
20वीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में लिप्टन कंपनी ने चाय के पैकेट मुफ्त में बांटे, और गांव-गांव प्रचार किया। पहले चाय केवल शहरी कस्बों में पी जातीथी। यही अभियान आज उत्तराखंड के हर घर में चाय की चुस्की की वजह बना।
जब चाय नहीं थी, तब क्या पीते थे?
प्रो. शर्मा बताते हैं कि चाय से पहले उत्तराखंड में दूध, मट्ठा, दी और लस्सी जैसे पेयों का चलन था। खासतौर पर पहाड़ों के ग्रामीण इलाकों में गाय-भैंस के दूध से बने उत्पादों को ही पेय माना जाता था।
सीमांत भोटिया जनजातियों में दूध का इस्तेमाल नहीं होता था। वहां पी जाती थी ‘मरज्या’ – मक्खन युक्त नमकीन चाय। इसे खास पत्तियों – ‘ज्यरल’ – से बनाया जाता था। तिब्बती शैली में धुनेर वृक्ष की छाल, नमक, मक्खन और जौ मिलाकर एक तरह की चाय बनाई जाती थी, जो खाने में भी इस्तेमाल होती थी।
शराब भी थी, पर देसी और छुपी हुई
उत्तराखंड में शराब का ज़िक्र भी दिलचस्प है। पहले विश्व युद्ध से पहले तक “पक्की शराब” (डिस्टिल्ड) को लोग घृणा की नजर से देखते थे। पकड़े जाने पर हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता था। फिर भी, सीमांत क्षेत्रों में ‘छंग’, ‘च्यक्ती’, ‘जांड’ जैसे पारंपरिक मादक पेयों का चलन था। ‘छंग’ – जौ से बनी हल्की शराब – देवताओं को चढ़ाई जाती थी और फिर प्रसाद के रूप में पी जाती थी रवांई-जौनपुर में राबड़ा, धोंघटी, पाखुई जैसी देसी शराबें थीं। जौनसार-बावर में मडुआ और चौलाई से बनी दारू में जड़ी-बूटियों की क्रीम मिलाई जाती थी, जो आयुर्वेदिक मानी जाती थी। गढ़वाल के गद्दी-पशुपालक जौ या मडुए की बनी च्यक्ती पीते थे, खासतौर पर सर्दियों में। Tea History Utarakhand